प्रकाश को लेकर प्रकृति में ऐसी कई तरह की घटनाएं होती हैं जिनमें से कुछ को समझाया जा सकता है अगर मान लिया जाये कि प्रकाश तरंग है. वहीँ कुछ को समझाया जा सकता है अगर मान लिया जाए कि प्रकाश कण है। कुछ ऐसी भी घटनाएँ होती हैं जो प्रकाश को तरंग मानकर भी समझायी जा सकती हैं और कण भी। मगर वास्तव में प्रकाश है क्या? ‘कण' या ‘तरंग'? न्यूटन को लगता था कि प्रकाश ‘कण’ हैं, वहीँ हाइगेन्स को लगता था कि प्रकाश ‘तरंग’ है. दोनों के अपने-अपने तर्क और सिद्धांत थे। मगर 1901 में जब थामस यंग ने प्रकाश के व्यतिकरण (Interference) प्रभाव को प्रयोगों द्वारा दिखाया और फ़्रेनल नें उसको हाइगेन्स के तरंग सिद्धांत के आधार पर समझाया तब ज़्यादातर लोगों को प्रकाश के तरंग सिद्धांत पर ही यक़ीन होने लगा। मगर तरंग तो किसी माध्यम में हलचल के फ़लस्वरूप उत्पन्न होती हैं, फ़िर प्रकाश क़िसमें हलचल के फ़लस्वरूप उत्पन्न होता है? तो इसका जवाब था, ईथर।
ईथर की परिकल्पना उस समय नयी नहीं थी। इसकी शुरूवात तो ईसा से चार सौ साल पहले अरिस्टोटल ने ही कर दी थी। उनके अनुसार ईथर वायु से भी हल्का एक ऐसा पदार्थ था जिससे सभी आकाशीय पिंड घिरे हुए थे। 1704 में न्यूटन नें अपनी किताब Optiks प्रकाशित की और उसमें प्रकाश के कण सिद्धांत को प्रतिपादित किया और उसके प्रकाश की कई घटनाओं को समझाया। मगर वे कण सिद्धांत से प्रकाश के विवर्तन (Diffraction) को नहीं समझा पा रहे थे और इसके लिए उन्होंने ईथर को दोषी माना। कण और तरंग दोनों को ही मानने वाले ईथर की मौजूदगी के बारे में पूरी तरह से निश्चिन्त थे। जब प्रकाश का तरंग होना मान लिया गया, तब सवाल आया कि ईथर के गुण क्या-क्या होंगे? जैसे ईथर में तरंग उत्पन्न करने के लिए किसी रबर की तरह इलास्टिक गुण तो होना ही चाहिए। दूसरा ईथर का घनत्व क्या होगा और क्या वह हर जगह होता है? क्या ईथर धरती के साथ-साथ घूमता है या स्थिर रहता है? कई तरह के सवाल-जवाब थे जिनसे कई तरह के सिद्धांत बने जो कि ईथर की हलचल को समझा रहे थे।
मग़र 1862 में एक बिल्कुल ही नए तरह का सिद्धांत निकलकर आया जब मैक्सवेल ने कहा कि हम इस बात को किसी भी तरह से नकार नहीं सकते हैं कि प्रकाश जिस भी तरह के माध्यम में हलचल के फ़लस्वरूप उत्पन्न हो रहा है, वो वही माध्यम है जो जिसकी वजह से विद्युतीय और चुंबकीय घटनाएँ होती हैं। दूसरे शब्दों में मैक्सवेल नें विद्युतचुंबकीय-ईथर के होने की बात कही, बजाय किसी इलास्टिक गुण रखने वाले ईथर की, जो कि उस समय के सभी सिद्धांतों में पाया जा रहा था। मैक्सवेल इस निष्कर्ष पर विद्युतीय और चुंबकीय घटनाओं के समीकरणों पर काम करने और यह देखने के बाद पहुँचे कि दोनों ही घटनाएँ उसी गति से आगे बढ़ती हैं जिस गति से प्रकाश आगे बढ़ता है। 1864 तक मैक्सवेल सभी तरह की विद्युतिय और चुंबकीय घटनाओं को बस चार समीकरणों में पिरोने में कामयाब रहे। मैक्सवेल ने अपना विद्युतचुंबकीय सिद्धांत 1873 में एक किताब के रूप में प्रकाशित किया। यह वही समय था जब हेंडरिक लॉरेंज़ अपनी PhD का शोधकार्य प्रारम्भ करने जा रहे थे। उस समय प्रकाश के ईथर में हलचल वाले सिद्धांतों और मैक्सवेल के नए नवेले सिद्धांत जिसमें कि मैक्स्वेल ने प्रकाश को बस एक विद्युतचुंबकीय तरंग के रूप में प्रस्तुत किया था, के बीच खुला मुक़ाबला चल रहा था। किताब प्रकाशित करने के बाद भी लोग मैक्सवेल के नए सिद्धांत को उसकी जटिलता के कारण समझ नहीं पा रहे थे जिसके लिए उनके सिद्धांत की काफ़ी आलोचना भी हुई।
और यहीं से लॉरेंज़ को अपने PhD का शोधकार्य प्रारम्भ करने की प्रेरणा मिली। उन्होंने अपनी PhD की थीसिस में प्रकाश से सम्बंधित विभिन्न घटनाओं और सिद्धांतों का अध्ययन करने और उन्हें आगे बढ़ाने का उद्देश्य बनाया। यह काम बहुत ही मुश्किल था मगर वो अंत में यह सिद्ध करने में सफल रहे कि मैक्सवेल का सिद्धांत ही सबसे बढ़िया है और उसे ही माना जाना चाहिए। लॉरेंज़ ने अपनी थीसिस में मैक्सवेल के सिद्धांत के उन भागों को भी विस्तार दिया जिनपर मैक्सवेल ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था। जैसे कि लॉरेंज़ ने विद्युत आवेश को छोटे-छोटे आवेशित कणों के रूप में देखा, जो कि किसी क्षेत्र में बढ़ या घट सकते थे। लॉरेंज़ के अनुसार विद्युत धारा इन कणों के गति करने से उत्पन्न होती है। यही कण थे जिनकी वजह से विद्युतचुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है जो इन कणों पर पुनः प्रभाव डाल सकता है। ये वो समय था जब इलेक्ट्रॉन की खोज भी नहीं हुई थी। ये वही कण थे जिन्हें बाद में बाद में इलेक्ट्रॉन कहा गया। लॉरेंज़ ने मैक्सवेल के समीकरणों के साथ ही एक अन्य समीकरण भी दिया जो कि किसी गति करते आवेशित कण पर विद्युतचुंबकीय क्षेत्र की उपस्थिति में लगने वाले बल को समझाता था, जिसे लॉरेंज़-बल का नाम दिया गया। कुल मिलाकर अपनी PhD थीसिस में लॉरेंज़ ने मैक्सवेल के सिद्धांत को फिर से अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया, उसके कान्सेप्ट्स को रिफाइन किया और उसके थियरेटिकल स्कोप को ऐक्सपैंड किया। इसी काम के लिए लॉरेंज़ को 1875 में अपनी PhD की डिग्री मिली। और यही कारण है कि बाद में आइन्स्टाइन भी इस सिद्धांत को Maxwell-Lorentz Theory के नाम से सम्बोधित किया करते थे।
उसी समय की बात है जब ज़ीमान ने भी प्रकाश और विद्युतचुंबकीय घटनाओं पर ही 1893 में अपनी PhD पूरी की। अपनी PhD के दौरान एक बार उन्होंने यह जानने की कोशिश भी की थी कि किसी गर्म पदार्थ से उत्पन्न प्रकाश के स्पेक्ट्रम पर चुंबकीय क्षेत्र की उपस्थिति का भी कोई प्रभाव पड़ता है या नहीं। मगर अपने प्रयोगों में उन्हें ऐसा कुछ नहीं मिला। कुछ सालों बाद प्रयोगशाला में नए और बढ़िया उपकरण आए जो कि स्पेक्ट्रल लाइन्स की स्थिति को बहुत ही अच्छे से नाप सकते थे। ज़ीमान ने 1896 में अपना वो प्रयोग फ़िर से दोहराने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने साधारण नमक़ को जलाया और उसकी लौ को विद्युतचुम्बक के दोनो पोल्स के बीच से गुज़ारा और फिर उसके बाद उन्होंने सोडियम की एक-एक स्पेक्ट्रल लाइन को विद्युतचुम्बक बंद-चालू करके बार बार नापा। और उन्हें एक प्रभाव नज़र आया। एक विशेष स्पेक्ट्रल लाइन चुंबकीय प्रभाव में थोड़ी सी मोटी हो जाती थी। उन्होंने एक शोध पत्र लिखा और अपनी इस खोज को प्रकाशित करवा दिया।
लॉरेंज़ ने पेपर पढ़ा और बहुत जल्दी ही अपने सिद्धांतों की मदद से उस विशेष प्रभाव को सफलतापूर्वक समझा दिया। चुंबकीय क्षेत्र की उपस्थिति बताती थी कि पदार्थ में जो भी आवेशित कण हैं उनपर ‘लॉरेंज़-बल’ लग रहा है, जिससे उनकी कम्पन की आवृत्ति प्रभावित हो रही है और जिससे निकलने वाले प्रकाश की आवृत्ति पर भी प्रभाव पड़ रहा है। लॉरेंज़ नें ये भी बताया की वो स्पेक्ट्रल लाइन मोटी नहीं होती, बल्कि दो लाइन में टूट जाती है। जिसका मतलब था कि वो मोटी बस उपकरण की कम क्षमता के कारण दिखायी दे रही होंगी। बाद में ज़ीमान ने लॉरेंज़ की बात पर फ़िर से और अच्छे उपकरणों से उसे नापा और लॉरेंज़ की सभी गणनाओं को सही पाया। उसने एक और पेपर में अपने परिणामों को प्रकाशित किया। उसने अपने पुनः किए प्रयोगों में ये भी पाया कि पदार्थ में पाए जाने वाले उस कम्पन करने वाले कण जिसकी वजह से प्रकाश उत्पन्न होता है, उसका द्रव्यमान या तो हाइड्रोजन के द्रव्यमान से हज़ार गुना कम है या फ़िर उसका आवेश हाइड्रोजन आयन के आवेश से हज़ार गुना अधिक। इसके साथ ही उसका आवेश ऋणात्मक भी है। इसके कुछ महीनों बाद ही 1897 में जे जे थामसन ने अपनी प्रयोगशाला में उस कण का द्रव्यमान और आवेश निकाला जो कि वास्तव में ज़ीमान और लॉरेंज़ के परिणामों से मेल खाता था। यानि कि सच में उसका द्रव्यमान हायड्रोजन के द्रव्यमान से हज़ार गुना कम था। यही वो कण था जिसे इलेक्ट्रॉन नाम दिया गया। जे जे थामसन को इलेक्ट्रॉन का खोजकर्ता माना जाता है क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान और आवेश निकाला। मग़र असल में खोजकर्ता को कैसे परिभाषित किया जाए, यह भी एक बड़ा सवाल है। वो ज़ीमान थे जिन्होंने इलेक्ट्रॉन का सबसे पहले प्रयोगों के द्वारा प्रदर्शन किया, और वो ज़ीमान थे जिन्होंने अपने सिद्धांतों से ऐसे कण की उपस्थिति की भविष्यवाणी बहुत पहले ही कर दी थी। ख़ैर इलेक्ट्रॉन की खोज के लिए न सही, ज़ीमान-प्रभाव की खोज के लिए 1902 का नोबेल पुरस्कार ज़ीमान और लॉरेंज़ दोनों को मिला। और इलेक्ट्रॉन की खोज के लिए जे जे थामसन को 1906 का नोबेल पुरस्कार मिला। लॉरेंज़ जो इलेक्ट्रॉन के सिद्धांत पर दसियों साल पहले से काम कर रहे थे, उन्होंने अपने काम को पूरा करके 1909 में The Theory of Electrons के नाम से किताब निकाली, जो कि भौतिकी के इतिहास की एक महत्वपूर्ण किताब है।
आज लॉरेंज़ का जन्मदिन है।
विज्ञान विश्व पेज से