अंधविस्वास

भारतीय समाज में आज भी अंधविस्वास भर पड़ा है। हम विज्ञान को मात्र एक विषय के रूप में लेते है विज्ञान के द्वारा अपने जीवन को समझने की कोशिश नही करते। शिक्षा अपनें परिवेश, अपनें चारो तरफ की दुनिया से सीखने का सबसे महत्वपुर्ण अवसर देती है। पिछले लगभग 500 वर्षो में विज्ञान के इसी प्रचार प्रसार के बूते यूरोप, अमरीका और उनका समाज यहां तक पहुंचा है और हम धर्म, शंका के खूंटे से बंधे हुए हैं । वैज्ञानिक चेतना कहती है कि इससे आगे क्या है ? वह हमें प्रश्न ,शंका , संदेह ,तर्क करनें को उकसाती है । विज्ञान के अंदर कोई भी सच अंतिम नहीं होता । अंतिम सत्य जैसे जुमले सिर्फ धर्म के ठेकेदारों के पास ही होते हैं । लगभग सौ वर्ष पहले आइंस्टाइन, मैक्सप्लान्क या दूसरे वैज्ञानिको नें पदार्थ, अणु, परमाणु की गुत्थी खोजनें में हमारी मदद नहीं की होती तो क्या आज हमारे पास मोबाइल , एक्स रे , सी टी स्केन और हजारों सुख सुविधाएं होतीं? या उससे पहले न्यूटन, फैराडे, रदरफोर्ड, या उससे भी पहले गैलीलियो , कोपरनिकस नें इसी चेतना के तहत जीवन को समझने की कोशिश ना की होती तो आज भी हम मध्यकाल के अंधेरे में बैठे होते। यह लगातार चलनें वाली प्रक्रिया है। क्लास में क्यों, कैसे जैसे प्रश्नों से ही सही शिक्षा आगे बढ़ेगी और यही वैज्ञानिक चेतना का पहला पाठ है। यह चेतना जरूरी नही कि सिर्फ विज्ञान के विषयों तक ही सीमित रहे । सामाजिक विज्ञान , इतिहास और यहां तक कि धर्म पर भी लागू हो तो धर्म और प्रासंगिक बनेंगे। हिंदी के एक आलोचक श्री हजारी प्रसाद दुवेदी का कहना है कि "जो धर्म परम्पराएं, आस्थाएं समय के साथ नही बदलतीं वे धीरे -धीरे लोगों के जीवन में भी अप्रसांगिक हो जातीं है।