टालमी की मान्यता थी कि प्र्थ्वी
विश्व का केंद्र है और स्थिर है। चंद्र सूर्य और उस समय तक ज्ञात सभी गृह इस प्र्थ्वी
की परिक्रमा करते हैं। इन सबके पीछे का तारा मण्डल भी प्र्थ्वी की ही परिक्रमा करता
है।“ प्र्थ्वी और इस पर का मनुष्य-जीव जगत का आधार है”
धर्म और विश्व से संबन्धित सभी प्राचीन विचार यही भावना रखते थे। गिरजे के अनुसार “प्रथ्वी
विश्व का केंद्र है और मनुष्य श्रस्टी का सरताज।
“ सभी खगोलीय ज्योतियाँ मनुष्य की सेवा करने और प्र्थ्वी को प्रकाश और गर्मी देने के
लिए बनाई गई हैं। जैसे मनुष्य ईश्वर की सेवा करने के लिए बनाया गया है। इसीलिए मनुष्य
को ब्रहम्माण्ड के केंद्र में रखा गया है।
पुराने जमाने का मनुष्य अपनें
जिस छोटे से दायरे में रहता था उसके मतानुशार ऊपर लिखी हुई बातें,
विचार और मान्यताएं स्व्भाविक ही थीं। लेकिन इस दुनिया में समय-समय पर कुछ ऐसे भी महापुरुष
पैदा होते रहे हैं जिन्होने स्व्भाविक को स्वीकार नही किया। कोपरनिकस भी ऐसे ही महापुरुष
थे। वे पहले आदमी थे जिसने टालमी और धर्म की प्रथ्वी को सारे ब्रहम्माण्ड का केंद्र
मानने वाली मान्यताओ पर जबरजस्त चोट की। खगोलीय पिंडों की गतियों पर विचार करते-करते
वे इस सीधे से प्रश्न पर सोचनें लगे कि क्या यह आश्चर्य की वात नहीं है कि हजारों तारे,सूरज
और चंद्रमा तथा गृह हमारे प्र्थ्वी की ही परिक्रमा करें?
इसके विपरीत क्या यह अनुमान करना उचित नहीं होगा कि प्र्थ्वी स्वयं लट्टू की तरह अपनी
धुरी पर घूमती रहती है और इसी कारण समूचा नभमंडल हमें अपनें चारोओर घूमता नजर आता है?
आज हम जानते है कि कोपरनिकस की बात ठीक है। इन्हीं संदेहों नें टालमी के जटिल और गलत
सिद्धांतों को उखाड़ फेंका जो पिछले डेढ़ हजाए वर्षों से स्वीकार किए जाते रहे थे जिन्हें
सब लोग सच मानते चले आ रहे थे। कोपरनिकस नें यही से एक नई विचार धारा को जन्म दिया
जिसे आज वैज्ञानिक विचार धारा कहते हैं। किसी भी बात या विचार को अपनें नजरिए से देखना
जरूरी होता है। विज्ञान हमें यही सिकाता है। किसी बात या विचार को विना पड़ताल किए मत
मानों।